जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला

उस उस राही को धन्यवाद !

एक रचनात्मक कार्य में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से इतने लोगों का योगदान होता है कि सबका नाम लेना असम्भव है। जैसे एक इमारत की डिज़ाइन बनाने के लिए आर्किटेक्ट जिस पेंसिल का इस्तेमाल करता है उस पेंसिल बनाने वाले को धन्यवाद देता है क्या? एक पेंसिल बनाने में किस व्यक्ति की काटी हुई लकड़ी और किसके खोदे ग्रेफ़ाइट का इस्तेमाल हुआ सोचना तो ख़ैर दूर की बात है। और सोचें तो एक इमारत के बनने में भला एक पेंसिल का क्या योगदान?! फिर जो मेरा मुझ जैसे होने का कारण हैं उन्हें धन्यवाद दिया भी कैसे जा सकता है? - परिवार, दोस्त, शिक्षक, और वो लोग जो जीवन का अभिन्न अंग बनते गए। जो मूलभूत कारण है मेरे अस्तित्व का - ये हैं तो मैं हूँ। इन पर तो बस इतराया जा सकता है कि ऐसे अद्भुत लोग हैं मेरे जीवन में!

अब इन बातों के परे सोचूँ तो सबसे पहले तो आपका आभार। जिसके हाथों में ये किताब है। आप जैसे पाठक हैं तो किताबें हैं।

मेरे लिखने में सबसे बड़ा योगदान है ब्लॉगिंग के मित्रों का। जो ‘का चुप साधि रहेहु बलवाना’ की तरह अनवरत पूछते रहे कि ‘किताब कब छप रही है?’। पटना, जो इस उपन्यास की पृष्ठभूमि है, में मैं कुल मिलाकर ढाई महीने रहा और उन्हीं दिनों ब्लॉग पर पटना डायरी लिखना शुरू किया था। जिसे ब्लॉगिंग के मित्रों ने हाथों हाथ लिया था। कुछ पोस्ट लोकप्रियता में लगभग ‘वायरल’ गति को भी प्राप्त हुए। पटना डायरी की शैली मेरे लिखे का पहचान बनती गयी। फिर ब्लॉगिंग में जिन लोगों का लिखा मुझे बहुत पसंद है जब उन्होंने कहा कि इस शैली में एक किताब छपनी चाहिए तब पहली बार किताब लिखने का सोचा। शिव कुमार मिश्र, ज्ञानदत्त पांडेय, रवि रतलामी, अनुराग शर्मा, गिरिजेश राव, अनूप शुक्ल, रंजना सिंह… दर्जनों भले लोग टिप्पणियों के मध्यम से, सोशल मीडिया पर, और मिलने पर भी पटना शैली में लिखने को याद दिलाना नहीं भूले। पूजा उपाध्याय ने तो यदि हर कुछ दिन पर लिखने के लिए धक्का नहीं लगाया होता और मेरा लिखा पढ़ प्रशंसा के पुल नहीं बांधे होते तो किताब लिखना व्यस्तता और आलस के बीच झूलता ही रह जाता।

पुस्तक की सम्पादक, शब्दों की जौहरी, राजपाल एंड संस की मीरा जौहरी का आभार। उनके सहयोग और सुझावों के बिना पुस्तक ये रूप कभी नहीं ले पाती।

आभार मेरा लिखा पढ़ने वालों का- जिन्होंने ना केवल पढ़ा बल्कि शेयर किया, उसके बारे में लिखा, मुझे ईमेल किया और कुछ ने ढूँढ कर मुझे फ़ोन भी किया। उन सम्पादकों का जिन्होंने मुझसे लिखवाया। मुझे हमेशा लगा कि उनके कहे बिना मैंने नहीं लिखा होता। धन्यवाद ट्विटर-मित्रों का भी जो बीच-बीच में मेरे बनाए किरदारों की खबर लेना नहीं भूलते - विशेषकर गिरीश भाई। एक लम्बे समय के बाद हिंदी में इतना पढ़ने को समय निकालने के लिए दोस्त अजित बुरड़ का धन्यवाद। पटना प्रवास के दौरान मिले भले लोगों का आभार। बिना उनके पटना जैसा देखा कहाँ देख पाता! पटना के दोस्तों के घर-परिवार तो अपने घर जैसे ही थे विशेष रूप से नीरज और स्तुति के।

अब आगे पढ़ा जाय…


अभिषेक ओझा

नव वर्ष 2021

*कतिपय कारणों से यह पुस्तक का भाग नहीं बन पाया.

**वो 'कतिपय 'कारण ये था - ये हिस्सा मैंने सबसे अंत में लिखने का सोचा था और पुस्तक का काम कोरोना महामारी के चलते इतनी धीमी गति से चल रहा था कि लिखने के बाद भी मैंने प्रकाशक को भेजने में कोई जल्दबाज़ी नहीं की। जब भेजा तो पता चला ...किताब छपने लगी थी।